आदर्श समाज?
आज सब ये लेख लिखने बैठा तो आज ही के अखबार में एक खबर अनायास ही याद आ गई कि एक बेटा अमेरिका से मुम्बई आया तो उसे फ्लेट में अपनी माँ का कंकाल मिला। सच में लगता ही नहीं कि ऐसा आज के जमाने में भी हो सकता है जबकि टेलीफोन, इंटरनेट और संचार के इतने साधन हैं कि बेटा यदि अंतरिक्ष में हो तो भी माँ की खोज खबर रख सकता है, लेकिन फिर लगा कि आज के जमाने में ही तो ये संभव है जब रिश्तों की चमक इतनी फीकी हो जाए कि बच्चों की माँ यदि मर जाए और कंकाल भी बन जाए और इतने दिन एक बेटे को ध्यान ही नहीं आए कि मेरी माँ कैसी है। खबर में जैसा लिखा था कि माँ की मृत्यु शायद भूख से हुई क्योंकि उनकी लाश में ज्यादा मांस बचा ही नहीं था इसीलिए बंद फ्लेट से मृत शरीर की बदबू नहीं आई और वो धीरे-धीरे कंकाल बन गया। जहाँ तक मुझे समझ है शरीर से कंकाल बनने में कुछ महीने तो लगते ही हैं तो क्या कुछ महीनों तक माँ की खोज ख़बर नहीं मिली तो बेटे का दिल नहीं घबराया कि माँ कहाँ है और तो और पड़ोसियों ने भी नहीं सोचा कि इस फ्लेट में कोई हलचल नहीं है। मैंने सुना था कि विदेशों में ऐसा होता है कि दो लोग सालों साल एक दूसरे के पास रहते हैं और एक दूसरे की शक्ल भी नहीं जानते हैं हम भी उस ओर तो नहीं जा रहे?
आनन्द वृद्धाश्रम जब प्रारम्भ किया था तो सोच थी कि गाँवों के रहने वाले वो बुजुर्ग जिनके बच्चे उनसे दूर बड़े शहरों में काम की तलाश में चले गए और कोई देखरेख करने वाला नहीं वो आराम से रह सकें, लेकिन गाँवों से कोई नहीं आया और जो एक दो आए भी वो भी वापस गाँव चले गए क्योंकि शायद उन्हें अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी ज्यादा बेहतर लगी या फिर इसे यूँ समझें कि वो वातावरण जिसमें अड़ोसी-पड़ोसी बोले या उनके हाल चाल पूछे वो ज्यादा अच्छा लगा। बचपन से पढ़ते आए हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है पर धीरे-धीरे कहीं ये वाक्य अप्रासंगिक न हो जाए क्योंकि मुम्बई जैसे महानगर में एक महिला जिसके 6-6 करोड़ के दो फ्लेट हों वो अगर भूख से तड़प कर मर जाए तो सारी सामाजिकता व्यर्थ है। आप सोचिए उस तिल-तिल कर अंतिम सांस लेती एक माँ का दर्द, सच में रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मन सोचता है कि काश ऐसा न हुआ हो लेकिन यह कड़वी हकीकत है।
बहुत से लोग हमें मिलते हैं और कहते हैं कि वृद्धाश्रम भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है और वृद्धाश्रम होने नहीं चाहिए, अच्छी सोच है। आदर्श समाज में वृद्धाश्रम नहीं होने चाहिए ऐसा तो मैं भी कह सकता हूँ लेकिन हकीकत में क्या समाज आदर्श है? वृद्धाश्रम में जितने भी बुजुर्ग रह रहे हैं शायद वो अपने जीवन का अंतिम समय बेहतरीन गुज़ार रहे हैं, बेहतरीन इसलिए नहीं कि उन्हें अच्छा खाना, रहना, दवाइयाँ, वगैरह मिल रही बल्कि उनके पास हमेशा 20-25 लोग है जिनसे वो बोल सकते हैं साथ में समय बिता सकते हैं। और अब तारा संस्थान एक और वृद्धाश्रम बना रही है जिससे कि निरंतर आ रहे हमारे बुजुर्गों को निराश न जाना पड़े।
आप भी तो हमारे साथ ही खड़े हैं न क्या पता आपका और हमारा छोटा सा प्रयास किसी और शरीर को कंकाल बनने से बचा सके।
दीपेश मित्तल
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