दानी
अभी कुछ दिन पहले हमारे दिल्ली के कार्यकर्ता ने एक दानदाता से बात करवाई जो बन रहे नए वृद्धाश्रम के लिए दान देना चाहते थे, उन्होंने मुझसे पूछा कि आपने ये जो नाम दिए हैं भवन निर्माण दधीचि (1,00,000/- दान हेतु), भवन निर्माण कर्ण (51,000/- दान हेतु), भवन निर्माण भामाशाह (21,000/- दान हेतु) उसमें हम कर्ण तो जानते हैं लेकिन भामाशाह और दधीचि नहीं जानते फिर उन्होंने कहा कि आप तारांशु में इनके बारे में तो बताइये। बात मुझे उचित लगी इसलिए भारत के दानियों की चर्चा करते हैं। भारत में वैसे महान लोगों की गणना करें तो अनेको अनेक लोग मिल जाएंगे पर प्राचीन काल से अब तक जो भी दानवीर सुने है उनमें सबसे बड़े दानी ये तीन थे जिनके नाम पर हमने भवन निर्माण के दानदाताओं की योजना बनाई।
ऋषि दधीचि : कहते हैं कि इद्रलोक पर वृत्रासुर नाम के राक्षस ने अधिकार कर लिया था और उसे किसी शस्त्र से नहीं मारा जा सकता था तो देवताओं को ब्रह्माजी ने बताया कि यदि पृथ्वी के एक महान ऋषि दधिची की हड्डियों से शस्त्र बने तो उस से उस राक्षस का संहार होगा। इंद्र बहुत संकोच से उनके पास गए और ऋषि दधिची ने तुरंत समाधी ली और उनके शरीर की हड्डियों से वज्र बना जिससे असुरो का संहार हुआ। अगर प्रेरणा के लिए भी यह कथा मान लें तो विश्व में ऐसा उदाहरण कहाँ मिलेगा जहाँ लोक कल्याण के लिए देह त्याग दी जाए।
कर्ण : कर्ण तो महाभारत के वे महान व्यक्तित्व हैं जिन्हें सब जानते हैं लेकिन जो नहीं जानते उन्हें थोड़ा बता दें। कर्ण कुंती के सबसे बड़े पुत्र थे और वे कवच कुण्डल के साथ पैदा हुए थे उनहें वरदान था कि जब तक कवच कुण्डल धारण रहेंगे उन्हें कोई नहीं मार सकेगा। कर्ण कौरवों की तरफ से लड़ रहे थे और पांडवों में उनकी टक्कर के धनुर्धर उन्हीं के भाई अर्जुन थे जिन्हें इन्द्र का पुत्र कहा जाता है। कर्ण के लिए यह प्रसिद्ध था कि सुबह सूर्य उपासना के बाद उनके द्वार पर जो भी याचक आता उसे वो जो भी मांगे, दे देते थे। इन्द्र भेष बदलकर याचक के रूप में कर्ण के पास गए और कवच कुण्डल मांग लिए। कर्ण को पता था कि ये देने पर उनके प्राण चले जाएँगे पर उन्होंने सहज भाव से कवच कुण्डल दे दिए। और फिर युद्ध में वे अर्जुन के हाथों मारे गए। अपने वचन के लिए जान देने की हिम्मत किसमें होती है?
भामाशाह : महाराणा प्रताप अकबर से लड़ाई लड़ रहे थे। प्रताप की मुट्ठी भर फौज और अकबर की विशाल सेना तो भी लड़ाई थी स्वाभिमान की, स्वतंत्रता की और लड़ी जा रही थी हिम्मत से लेकिन युद्ध बिना पैसे के नहीं होता। प्रताप जंगलों में घूम रहे थे उनका सारा धन खत्म हो गया था ऐसे में एक जैन व्यापारी भामाशाह अपना सारा धन प्रताप के पास ले आए कि सम्मान की लड़ाई चलती रहे। प्रताप की आँख भर आई और उन्होंने भामाशाह को गले लगा लिया। एक ऐसा युद्ध जिसमें जीत लगभग असंभव थी उसके लिए एक व्यापारी अपनी सारी पूंजी यदि दान कर दे ये सिर्फ भारत में ही होता है।
तारा संस्थान के आनन्द वृद्धाश्रम के नए भवन के लिए भी हमने दानदाताओं के लिए जो योजना बनाई तो ये तीन नाम स्वतः पसंद बने। मुझे अच्छी तरह पता है कि नाम किसी के लिए महत्वपूर्ण नहीं होता है और इन महान दानदाताओं की बराबरी करना असंभव है, और आप लोग भी इसलिए देते हैं क्योंकि आपकी भावना है किसी के लिए अच्छा करने की बस कोई योजना सामने हो तो अपने बजट को आगे पीछे करके उस योजना से जुड़ जाते। हम भी आपका नाम इसलिए लिखना चाहते है कि उतने बड़े न सही फिर भी बहुतों से अलग हैं आप, तभी तो आपमें तो करुणा का विशेष गुण है और आपकी इसी भावना को सम्मान देने के लिए यह योजना है।
भवन निर्माण तेजी से चल रहा है और 22 अप्रैल निर्धारित दिनांक है जब भवन का आप सबके सानिध्य में उद्घाटन करेंगे। भवन की फिनिशिंग में सबसे ज्यादा खर्चे होते हैं और धन की आवश्यकता भी उतनी ही तो आने वाले कुछ माह में इस भवन हेतु आपका छोटा सा सहयोग भी बड़ी मदद होगी।
आपने हमेशा साथ दिया है और देते रहेंगे यही विश्वास है।
दीपेश मित्तल
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