एक घर का बनना...
मेरे पापा आदरणीय कैलाश जी मानव कभी-कभी बताते है कि कैसे “नारायण सेवा संस्थान” की पहली बिल्डिंग सेवाधाम बनी, कैसे वो खुद उसकी तराई करते थे। कैसे एक-एक कर कमरे बनते रहे क्योंकि उस समय नारायण सेवा संस्थान की शुरूआत थी और कमरा तब ही बनता था जब कोई डोनर उसे ैचवदेवत करता था। वे बताते है कि उन्होंने रात दिन एक कर दिए उस ठनपसकपदह को बनाने में जो कि आज नारायण सेवा संस्थान में सेवाधाम के नाम से जानी जाती है। बाद में भी ढेरों ठनपसकपदह में वैसा ही जूनून पापा का मैने पाया फर्क सिर्फ इतना था कि पैसों के लिए उतनी जद्दोजहद नहीं थी।
तारा संस्थान ने जब आनंद वृद्धाश्रम के लिए नया भवन बनाना शुरू किया तब मुझे समझ में आया कि निर्माण का सुख क्या होता है नींव खुदने से लगा कर फर्निचर बनने तक हर चीज उतना ही आनंद देती है जैसे कि कोई बच्चे को बड़ा कर रहे हों। पापा जैसी जूनूनी तो मैं हूँ नहीं और मुझे लगता है कि बहुत ही कम लोग ऐसे होते है लेकिन रोजाना नये बन रहे भवन पर जाना होता था, इतनी अलग-अलग ऐजेंसी, आर्किटेक्ट, ठेकेदार, बिजली वाले, नल वाले, पेंटर, फर्निचर वाले, इंटीरियर वाली। सबसे कई-कई मीटींग मैं, दीपेश जी, विजय सिंह जी, शंकर सिंह जी और बहुत से लोग समय-समय पर संस्थान की तरफ से इन मीटींग में होते थे। हमारा प्रयास यह रहता था कि मितव्ययता बरतते हुए भी भवन ऐसा बने कि यहाँ आने वाले हर बुजुर्ग को घर जैसा ही लगे। दूसरा सबसे जरूरी पक्ष था कि सबके लिए ऐसी सुविधा हो कि उनकी दिनचर्या आसान हो। जैसे-जैसे बिल्डिंग बनने लगी, आर्किटेक्ट श्री पुनीत जी सक्सेना और इंटीरियर डिजायनर सुरभी जी को भी मानो इस बिल्डिंग से लगाव हो गया वे भी वृद्धाश्रम पहली बार बनवा रहे थे लेकिन उन्होने तारा में रह रहे बुजुर्गों को देखा था तो उनके मन में भी यही भाव थे कि यह भवन ऐसा बने कि यहाँ रह रहे बुजुर्गों को ऐसा लगे कि घर से बेहतर कोई जगह आए है।
आज जब यह लिख रहीं हुँ तो भवन बन गया है उद्घाटन भी हो गया है आप में से कुछ दानदाता यहाँ आए भी, उदयपुर से भी हमारे बहुत से मिलने वाले आऐ, सभी ने एक मत से यह बात बोली कि भवन बहुत सुंदर बना है, कई मेहमानों और मिलने वालों ने तो ये तक कहा कि हमारी जगह यहाँ त्मेमतअम कर लो। कुछ अतिश्योक्ति हो तो भी मेरे अंदर के मन को पता है कि भवन सुंदर है, हवादार है अच्छी रोशनी है खुला-खुला सा है। तसल्ली इस बात की भी है कि थोड़ा बहुत म्समअंजपवद के अलावा कोई फिजूल खर्च नहीं किया है।
विचारों की श्रंखला चलती है तो एक खयाल आया कि अच्छे वृद्धाश्रम के मायने क्या हैं तो दिल से तुरंत जवाब दिया कि यह प्रयास उन लोगों के स्वाभिमान को जगा रहा है जो सिर्फ इसलिए अपमान का घूंट पी रहे है कि उनके पास जगह नहीं है कि जायें कहाँ। पैसे वालों के लिए तो बहुत से वृद्धाश्रम कई जगहों पर हैं जहाँ सारी सुविधाऐं हैं लेकिन वो बुजुर्ग जो अच्छा जीवन आत्मसम्मान के साथ चाहते हैं लेकिन पास में पैसा बिल्कुल नहीं है तो? बस इसी का जवाब आप सबने दे दिया एक सुंदर सा घर बनवाकर। आप जो यहाँ नहीं आ पाए तो कभी भी आऐं आपको अच्छा लगेगा, अब तो इस नए वृद्धाश्रम में कमरे भी हैं जो भी पति-पत्नी आऐंगे तो भी आराम से रह सकते हैं उन्हें हम अलग कमरा देगें जो सर्वसुविधा युक्त है।
भवन बन गया उद्घाटन भी हो गया उसके बाद एक-दो दिन थोडे़ खाली से गए ऐसा लगने लगा कि “अरे कोई काम नहीं है क्या”.... लेकिन ईश्वर कि कृपा है कि वो लगातार काम करने का सुख देता है तो अब हम जुट गए नए वृद्धाश्रम में आने वाले बुजुर्गों की दैनिक व्यवस्थाओं हेतु ब्वतचने थ्नदक (संचित निधी) जुटाने के लिए एक योजना पहले ही बना ली थी,
वृद्धजन सहयोगी ‘‘शांति’’ 1,00,000/-
वृद्धजन सहयोगी ‘‘शक्ति’’ 50,000/-
वृद्धजन सहयोगी ‘‘आस्था’’ 21,000/-
उसे सब दानदाताओं तक पहुँचाना था.... अरे भाई बुजुर्ग बढे़गे तो खर्चा भी तो बढ़ेगा।
आप भी कह सकते हैं कि खर्चे कि व्यवस्था नहीं थी तो नया वृद्धाश्रम क्यों खोला?पर हम क्या करते, कोई बुजुर्ग आना चाहता तो मना थोडे़ ही करते और अगर मना करते तो आप सबको हमसे ज्यादा बुरा लगता। बस आप सब को जोड़े रखेगे और नये-नये लोगों को भी जोडे़गे क्योकि अच्छे काम में जितने हाथ जुड़ते हैं उतना ही शुभ वो कार्य हो जाता है।
आदर सहित....
कल्पना गोयल
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