एक शिविर LIVE
सुबह के 8 बजे हैं तारा नेत्रालय, उदयपुर में 4-5 जनों की एक टीम इकट्ठा है। कुछ सामान जिनमें दवाइयों के डिब्बे, बैनर, नजदीक के चश्मे एक कैमरा सब एक एंबुलैंस में रख कर यह टीम रवाना हो गई है। गाड़ी शहर से बाहर निकल कर हाइवे पर दौड़ रही है और अब हाइवे से भी हट कर छोटी - छोटी सड़कों पर हैं। ये सड़क अब कच्ची पक्की गालियों में बदल गई हैं। धूल के गुबार उड़ाती गाड़ी आगे बढ़ती जा रही है। लगभग 9.30 बजे हैं और अब गाड़ी एक स्कूल के गेट पर पहुँच गई है। उदयपुर से 85 कि.मी. दूर एक आदिवासी गाँव के इस स्कूल में लगभग 50 बुजुर्ग इकट्ठा हैं। बड़ी-बड़ी पगड़ी पहने बासा (मेवाड़ में बुजुर्गों पुरुषों को बासा और महिला को बाई जी कहते हैं) और लुगड़ी में घूँघट में झुर्रियों वाला मुँह छुपाए बाईजी। गाड़ी में से तारा की टीम उतरकर अपने अपने काम में लग जाती है। एक-दो कार्यकर्त्ता ओ.पी.डी. में रजिस्ट्रेशन का कार्य कर रहे हैं। सारे रोगियों को नम्बर डाल कर ओ.पी.डी. में फार्म दिया जा रहा है और उन्हें क्रम से बैठाया जा रहा है। एक कमरे में सफेद कोट (।चतवद) पहने डॉक्टर या ऑप्टोमेट्रिस्ट ने अपनी कुर्सी जमा ली है उनके पास नर्सिंगकर्मी दवाइयाँ और चश्मे एक टेबल पर जमा रहे हैं। कमरे के बाहर गाँव के ही कोई कार्यकर्त्ता सारे बुजुर्गों को मेवाड़ी भाषा में ऐसे डांट रहे हैं, मानों मास्टर जी स्कूल में बच्चों को डांट रहे हों।
एक-एक कर बुजुर्गों को डॉक्टर सा. के पास भेजा जा रहा है। कुछ बुजुर्गों को तो आँखों में जलन-खुजली की समस्या है उन्हें डॉक्टर सा. ने देख कर दवा दे दी है। अरे ये क्या ये बासा तो बिलकुल देख नहीं पा रहे उन्हें उनका पोता हाथ पकड़ कर ला रहा है। डॉक्टर सा. ने उन्हें देखा.... ओफ इनकी आँख तो एकदम सफेद यानी बिलकुल पका हुआ मोतियाबिन्द, डॉक्टर सा. उन्हें डांटते हैं कि बिलकुल दिख नहीं रहा तो अभी तक इलाज क्यों नहीं कराया आँख फूट जाती तो, वे मासूमियत से जवाब देते हैं ‘‘तो कई नी’’ (मतलब तो कोई बात नहीं) डॉक्टर सा. हैरान हैं, कहते हैं ऑपरेशन क्यों नहीं कराया? तो सपाट सा जवाब ‘‘कुण करातो’’(मतलब कौन कराता)। डॉक्टर साहब उन्हें क्पसंजम करवाने के लिए नर्सिंगकर्मी को कहते हैं और बासा के पोते को हिदायत देते हैं कि इन्हें आज ही साथ भेजना ऑपरेशन करने नहीं तो अंधे हो जाएँगे।
दो बुजुर्ग महिलाएँ भी डॉक्टर सा. को दिखा रही हैं। एक की नजर कमजोर है नजदीक की वो डॉक्टर सा. से कहती है कि नजदीक का चश्मा दे दो, वो कहते हैं पढ़ी लिखी हो क्या तो ना में सिर हिलाती है लेकिन फिर स्वहपब देती है कि बीनने चुनने में चश्मा चाहिये, तो डॉक्टर साहब भी चश्मा देकर व्इसपहम कर देते हैं।
दूसरी बाईजी तो घूँघट उठाने को ही तैयार नहीं है, तो अब डॉक्टर सा. उनकी आँख में ज्वतबी की रोशनी कैसे डाले, दुविधा है, फिर स्कूल की एक बहनजी उनका घूंघट जबरदस्ती सरकाती हैं तब पता चलता है कि इन 65 साल की मोहतरमा के भी पका हुआ मोतियाबिन्द है। डॉक्टर सा. तो ये नहीं समझ पा रहे कि इतने पके मोतियाबिन्द के साथ इतने बड़े घूँघट में वो चलती कैसे होगी। खैर, उन्हें भी ऑपरेशन के लिए ैमसमबज कर लिया जाता है। अब तक डॉक्टर सा. 72 रोगी देख चुके हैं और अब चाय का ठतमां लेते हैं। गाँव में जैसे-जैसे लोगों को पता चलता है कि स्कूल में शिविर लगा है तो और लोग आते हैं।
स्कूल में तो मानों मेले जैसा माहौल है। दोपहर 1 बजे तक 160 लोग डॉक्टर साहब देख चुके हैं और अब थक कर कहते हैं कि और नहीं लेकिन गाँव के लोकल कार्यकर्त्ता थोड़ा पटाकर बचे हुए 5-6 रोगियों को और दिखाते हैं।
शिविर समाप्त हुआ 166 रोगियों को देखा 50 चश्मे दिए 82 रोगियों को दवाई दी। 17 जने ऑपरेशन के लिए ैमसमबज हुए। उन्हें कहा कि आप चलो कल आपका मोतियाबिन्द ऑपरेशन हो जाएगा और ऑपरेशन के अगले दिन आपको वापस गाँव छोड़ देंगे। ऑपरेशन, दवाइयों, काला चश्मा सब निःशुल्क। फिर भी, कुछ लोग हिचकिचा रहे, कार्यकर्त्ता उन्हें मनाता है कुछ लोग ऑपरेशन के नाम से ही डर रहें, कुछ के शादी है कुछ को खेत में काम। अंत में 10 रोगी तैयार होते हैं लेकिन ये क्या इन बूढ़ी बाईजी के साथ तो कोई ।जजमदकमदज ही नहीं, कोई बात नहीं दूसरे रोगियों के साथ वाले कहते हैं कि हम आपका ध्यान रखेंगे।
तो ये एंबुलेंस धूल उड़ाती इन 10 रोगी व उनके ।जजमदकमदज को लेकर तारा नेत्रालय, उदयपुर आती है। अगले दिन वो बूढ़े बासा और बाईजी जिनके पका मोतिया था उनका ऑपरेशन होकर जब पट्टी खुलती है तो उनको चमत्कार लगता है, वो दुआए देते हैं डॉक्टर सा. व नर्सों को और उनकी खुशी उनके मासूम चेहरों में साफ झलकती है। ऑपरेशन के अगले दिन एंबुलेंस उनको वापस गाँव छोड़ आती है।
कैम्प विशेषांक था तो बस कैम्प की झलक आपके सामने रख दी। यकीन मानिये इसमें एक प्रतिशत भी अतिश्योक्ति नहीं थी। जैसा मैंने कैम्पों में देखा, लगभग वैसा ही लिख दिया आप सब के लिए। जिन्होंने अपने बच्चों के जन्मदिन, दादा-दादी, नाना-नानी या कभी माता-पिता की पुण्यतिथि पर शिविर करवाए और व इन शिविरों में आ नहीं पाए।
तारा में जितना वृद्धाश्रम, गौरी या तृप्ति योजना महत्त्वपूर्ण है उतना ही शिविर भी। दिल्ली, मुम्बई या फरीदाबाद के शिविरों में तो 400-500 तक की ओ.पी.डी. होती है। शिविर एक प्रयास है संस्थान का उन तक पहुँचने का जो हम तक आ नहीं पाते हैं और अगर एक शिविर से एक भी बासा या बाईजी अंधे होने से बच गए तो सारे पुण्य आपको और हमें मिल गए हैं ना?
आदर सहित....
दीपेश मित्तल
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