एकाकीपन की दवा
अकसर ऐसा होता है कि जब हम अपने परिचित, मित्र या दानदाता को वृद्धाश्रम विजिट करवाने ले जाते हैं तो उनमें से कई महानुभाव हँसी में ऐसा कह देते हैं कि भइया हमारी जगह भी इसमें त्मेमतअम कर देना, इतनी अच्छी व्यवस्था है तो हम भी बुढ़ापे में यहीं रहेंगे, जवाब में हम कहते हैं कि हाँ हम लोग भी यहीं रहेंगे हमारी जगह तो त्मेमतअम है ही आपकी भी कर लेते हैं और ठहाकों की आवाज में बात आई गई हो जाती है।
बचपन की पाठ्य पुस्तकों में अकसर एक वाक्य पढ़ा था ‘‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’’ इस वाक्य के मर्म शायद अभी पूरी समझ आया है। अब जब हम इस बात के ठहाके लगाते हैं कि वृद्धाश्रम में सीट त्मेमतअम करनी है तो सामने वाले गेस्ट शायद उतनी गहराई से समझें या नहीं लेकिन मनुष्य जब सामाजिक प्राणी है तो फिर इस समाज, रिश्तों, दोस्तों या अपनों की जरूरत सबसे ज्यादा होती है जब शरीर और मन थकने लगता है। इसी वक्त रिश्ते धोखा देने लगते हैं कभी समय की कमी या कभी मन की कमी बच्चों को माता पिता से दूर कर देती है। घर के बुजुर्ग ये भी सोचें कि चलो आज दोस्तों से मिल लें या उनके साथ कहीं चले जाएँ तो कौन उनको दोस्तों के पास ले जाएँ और खुद के पास यदि आय का साधन ना हो तो फिर कहीं अकेले ऑटो या टैक्सी से भी कैसे जाऐं।
तारा संस्थान के बन रहे नवीन वृद्धाश्रम के निर्माण में सहयोग जुटाने हेतु यू.के. (इंग्लैण्ड) की एक संस्थान ‘‘भारत वेलफेयर ट्रस्ट’’ ने भजन के कार्यक्रम इंग्लैण्ड के अलग अलग शहरों में रखे थे। वहाँ 15-20 दिन रहना हुआ तो वहाँ की संस्कृति से थोड़ा परिचय भी हुआ। वहाँ पर बच्चे जब कमाने लग जाते हैं तो वे माता-पिता से अलग रहने लगते हैं, भारतीय लोग भी ऐसे ही करने लगे वहाँ पर, यानी कि एक ही शहर में हों तो भी माता-पिता अलग बच्चे अलग। यहा कारण है कि वहाँ मंदिरों, कथाओं, भजनों में बहुत अधिक लोग आते हैं। वहाँ मंदिर बुजुर्गों के मिलने जुलने का स्थान है। कहीं कहीं टिफिन क्लब हैं जहाँ वो बुजुर्ग जो खाना नहीं बना सकते वो आकर पैसे देकर खाना खा सकते हैं। और फिर, वहाँ वृद्धाश्रम तो हैं ही जहाँ बुजुर्ग अति वृद्धावस्था में रह लेते हैं। विदेश में बुजुर्गों के साथ जो एक अच्छी बात है तो है ैवबपंस ैमबनतपजल यानी सामाजिक सुरक्षा जिसमें वृद्धावस्था में उन्हें अच्छी खासी पेंशन मिलती है जिससे वे घूमते फिरते हैं और हाँ दान भी देते हैं। लेकिन, फिर भी, बहुत से बुजुर्ग अपने रिटायरमेंट को अब भारत में बिताने की सोचने लगे हैं कारण एक तो वहाँ की पेंशन में वे यहाँ अच्छा जीवन जी सकते हैं दूसरा बड़ा कारण ‘‘सामाजिकता’’।
तारा में वृद्धाश्रम प्रारम्भ हुआ तो सोच ये थी कि गाँवों के बुजुर्ग जिनके बच्चे बड़े शहरों में गए हैं वो आकर रहेंगे, लेकिन एक दो बुजुर्ग आए फिर वापस गाँव चले गए। गाँवों में गरीबी है, संसाधनों की कमी है लेकिन अभी भी लोग मिलकर बैठते तो हैं। गाँव की चौपाल शायद वैसी तो नहीं रही लेकिन फिर भी लोग आपस में बतियाते तो हैं।
हमें सभी कहते हैं कि वृद्धाश्रम हमारी संस्कृति नहीं पर.... घर के बुजुर्ग जो बिलकुल अकेले हैं, एकाकी हैं और बच्चे तिरस्कार कर रहे हैं, उनके पास कोई पेंशन नहीं है, घर-बार दुकान सब बच्चों के हवाले कर दिया.... लेकिन ये शरीर तो है और उसमें एक सोचने समझने वाला मन जिसे अपने चाहिये जिनसे वो बात कर सकें। ‘‘एकाकी मन’’ डिप्रेशन का शिकार हो जाता है विदेशों में ये आम बात है हमारे यहाँ तो ये एकाकी बुजुर्ग घर की खिड़की या बालकनी से बाहर सड़क की भीड़-भाड़ व गाड़ियाँ देखकर मन बहला लेते हैं।
सारी नकारात्मकता को एक तरफ रखकर देखें तो बुजुर्गों के एकाकी पन की दवा है वृद्धाश्रम, हमारी संस्कृति नहीं है लेकिन अब संयुक्त परिवार बचे कहाँ हैं तो बस निगाह बदलकर देखने की जरूरत है.... एक ऐसी जगह जहाँ 100-150 बुजुर्ग एक साथ बातें करते, लड़ते-झगड़ते, खेलते-टीवी देखते। जिनकी जेबें खाली हैं लेकिन फिर भी निशि्ंचत हैं, बीमार भी होते हैं लेकिन कोई तो है जो उन्हें एक ग्लास पानी और दवा की गोली पकड़ा सके।
आदर सहित....
कल्पना गोयल
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