जीवन चलने का नाम
पिछले दो माह से भी कम समय में आनन्द वृद्धाश्रम में पाँच वृद्ध हमें छोड़कर चले गए। कुछ को थोड़ा समय हुआ था कुछ बहुत समय से हमारे साथ थे। अंजली आंटी तो मार्च 2012 यानी कि आनन्द वृद्धाश्रम परिवार का हिस्सा थी। वे अपने पति श्री दिगेन्द्र नाथ जी लहरी के साथ यहाँ आई थी। उनके पति भी दो - ढाई वर्ष पूर्व यहीं पर चल बसे थे। आनन्द वृद्धाश्रम में यह पहला जोड़ा था जो यहाँ रहते हुए ईश्वर के पास गए। विवेकानन्द खरे मुम्बई के एक फुटपाथ से आए जर्जर अवस्था से स्वस्थ हुए थोड़ा अच्छा समय आया तो पता चला कैंसर है, मुझे हमेशा लगता है ‘‘जीवन’’ में आकर्षण है ऐसा ही कुछ आकर्षण उनमें भी देखा वो चाहते थे कि उनके कैंसर का इलाज होवे। हम भी तो यहीं चाहते थे कि यदि संभव होवे तो इलाज हो ही। तो बस बिना खर्च की परवाह के उनका ऑपरेशन प्राइवेट हॉस्पीटल में कराया क्योंकि सरकारी में संभव नहीं था। एक महीने से ज्यादा नली के सहारे तरल (स्पुनपक) दिया क्योंकि गले और मुँह का ऑपरेशन हुआ था। विवेक जी भी ऑपरेशन के लगभग 2 साल बाद चले गए। औरी लाल जी, सत्यनारायण जी और अंबा बाई की बात और कभी करेंगे बस ये बता दें कि वे भी नहीं रहे।
प्राणी होने पर जन्म के साथ साथ ही मृत्यु भी एक शाश्वत् सत्य है लेकिन परिवार में किसी बुजुर्ग की मृत्यु होती है तो कितनी बड़ी बात होती है। मेरे दादाजी की मृत्यु के समय तो मैं 15 वर्ष की थी लेकिन दादीजी के साथ बहुत समय बिताया तो उनका जाना तकलीफ देय था। हर परिवार में ऐसा ही होता है कि 10-15 साल में कोई अपना बिछड़ता है और उनका जाना एक सदमा या कभी-कभी गहरी यादें छोड़ जाता है। घर में इतने क्रिया कर्म होते हैं। अब आप जरा सा सोचिए कि जिस घर में साल में 4-5 मृत्यु हो जाए तो कितना दुःख होगा। सबसे तो जुड़ाव नहीं होता लेकिन जो लंबे समय से रह रहे हो उनका जाना कुछ यादें तो छोड़ ही जाता है। मेरे मन में विचार उठ रहे थे कि क्या ये वृद्धाश्रम तकलीफ तो नहीं देगा क्योंकि अभी तो 5) साल हुए हैं ज्यादा समय होगा तो ज्यादा लोगों की यादें मन में होंगी। जैसे कि अंबाबाई जो कभी थोड़े दिनों पहले ‘‘शिखर भार्गव पब्लिक स्कूल’’ में लट्टू चला रही थीं उन्हें अस्थमा था, 1 साल से हमारे साथ थी। बीमार भी कई बार हुईं लेकिन ठीक हो जाती और इस बार भी मुझे यही लगा कि ठीक हो जाएंगी लेकिन नहीं हुईं। ये जो खयाल मन में आया उस से थोड़ी परेशानी जरूर हुई, पर उसका जवाब भी मन ने ही दे दिया कि समय सब कुछ भूला देता है। परिवार में भी जाने वाले को चाहे अनचाहे भूलकर आगे बढ़ना ही पड़ता है तो वैसा ही यहाँ भी होगा और हाँ जीवन और मृत्यु की सच्चाई अगर देखनी हो तो ‘‘आनन्द वृद्धाश्रम’’ सबसे बड़ा उदाहरण है एक दिन एक बुजुर्ग चले गए तो उनका सुबह दाह संस्कार किया गया और शाम में एक दानदाता अपने बच्चे का जन्मदिन वृद्धाश्रम में मना रहे थे। मुझे पढ़ने का शौक है और कुछ अच्छे विचार जब भी पढ़ने को मिले उनमें था कि समभाव रखो यानी सुख दुःख जीवन मृत्यु सब में समान, पढ़कर यहीं सोचती थी कि ऐसा कैसे पॉसिबल है लेकिन ‘‘आनन्द वृद्धाश्रम’’ में कुछ कुछ ऐसा ही देख लिया और मैं भी कोशिश करती हूँ कि आनन्द वृद्धाश्रम से किसी का जाना विचलित ना करें।
अंत में यही कि वृद्धाश्रम है और जब 50-60 और बाद में 150-200 बुजुर्ग जब साथ रहेंगे तो प्रतिवर्ष मृत्यु का आंकड़ा भी कुछ न कुछ होगा, बस प्रयास इस बात का कि विदाई सम्मान-जनक होवें और जो भी समय हमारे साथ गुजरे इस विश्वास से कि मेरा कोई है।
कल्पना गोयल
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