जीवन का मूल मंत्र
एक राजा ने अपने दरबार में घोषणा की कि मुझे एक ऐसा मंत्र चाहिए जो सारे मंत्रों से ऊपर हो जिसका हर परिस्थिति में उपयोग हो सके। सारे मंत्री और दरबारी परेशान हो गए कि अब ऐसा कौन सा मंत्र लाए कि जो हर जगह काम में ला सकें, बहुत से लोगों से बात करने पर एक महात्मा जी मिले। महात्मा ने राजा को बोला कि मैं मंत्र तो लिख कर दूँगा, उसे तुम हमेशा अपने पास रखना लेकिन तभी पढ़ना जब तुम्हें कोई उम्मीद ना हो, जब तुम एकदम असहाय हो। राजा ने मंत्र वाला कागज अपने गले के ताबीज के अंदर रख लिया। वक्त गुजरा और एक बार पड़ोसी राजा ने आक्रमण कर दिया, राजा हार गया और उसकी सेना मारी गई, राजा के पीछे दुश्मन सैनिक पड़ गए। राजा घोड़े पर भागा, उसने सोचा कि मैं मंत्र पढ़ लूँ लेकिन फिर विचार आया कि अभी मैं असहाय कहाँ हूँ घोड़ा तो है। भागते-भागते घोड़ा भी गिर गया, राजा पैरों पर दौड़ा तो एक सुखे गहरे कुएँ में गिर गया। अब तो शिथिल राजा को कुछ ना सूझा, उन्होंने ताबीज में से मंत्र निकाला लेकिन उसमें केवल एक वाक्य लिखा था कि ‘‘यह वक्त भी बीत जाएगा’’, राजा को अजीब सा लगा लेकिन जब वो एकदम असहाय थे तो उन्हें इस एक वाक्य ने थोड़ी शांति दी। एक दिन ऐसे ही बीता फिर राजा को जंगल के आदिवासियों ने देख लिया उन्हें बाहर निकाला। राजा ने कुछ पुराने साथी और आदिवासी इकट्ठे कर वापस राज्य हासिल किया। धन संपत्ति वैभव सब वापस मिल गया तभी राजा को ध्यान आ गया कि ‘‘यह वक्त भी तो चला जाएगा।’’, यह सोचते ही राजा पूरे बदल गए उन्होंने सारा जीवन प्रजा की भलाई में लगा दिया। अब उन्हें पता था कि स्थाई कुछ भी नहीं है।
यह कहानी इसलिए याद आई के वित्तीय वर्ष 2018-19 समाप्त हो गया। पीछे मुड़ कर देखें तो लगता है कि कौन-कौन सा वक्त आया और गुजर गया। अच्छी बातें तो आपको बताते ही हैं कि लेकिन कई बातें ऐसी हुई कि लगा अब क्या होगा?
नोटबंदी के वक्त लगा था कि लोगों के पास नकदी का संकट होगा तो संस्थान कैसे चलेगी क्योंकि ‘तारा’’ में कई लोग हैं जो छोटी-छोटी राशि नकद देते हैं लेकिन वक्त आया और चला गया। किल्लत के बावजूद सबने दान दिया।
इनकम टैक्स छूट की धारा 35 एसी खत्म हुई थी, मुझे मालूम है कि सरकार का मकसद सही था क्योंकि हमारे पास कई फोन आते थे कि आप इतने करोड़ रुपये 35 एसी छूट के तहत ले लो और उसका 80 प्रतिशत वापस कर दो लेकिन हम मना कर देते थे। इसका मतलब यही था कि ऐसा होता होगा कहीं और तो। लेकिन हमारे बहुत से बड़े डोनर टैक्स छूट पाने के लिए हमेशा 35 एसी के तहत दान देते थे उन्हें दिक्कत होने लगी कुछ ने थोड़ा कम दान दिया कुछ ने बंद किया लेकिन तारा चलती रही।
जी.एस.टी. लागू हुआ तो भी लगा कि व्यापारी वर्ग मुश्किल वक्त में दान कैसे देगा, और दान देने में व्यापारी वर्ग के लोग ज्यादा हैं। लेकिन संस्थान चलती रही।
मुम्बई हॉस्पीटल के पास से सड़क निकली तो हॉस्पीटल का एक तिहाई हिस्सा उसमें आ रहा था। समस्या लगी कि अब क्या करें क्योंकि पहले ही जगह छोटी थी और इतने कम किराए में ऐसी जगह कहाँ मिलती मुम्बई में। हॉस्पीटल का हिस्सा टूटा, फिर से उसे दुरूस्त किया, दो महीने तक हॉस्पीटल बंद रखा, सारे स्टाफ को तनख्वाह उन दो महीनों की भी दी और थोड़े छोटे हॉस्पीटल मे काम शुरू हुआ। अभी छोटी जगह में भी काम उतना ही चल रहा है।
ऊपर जो कहानी थी वो तो मैंने अभी कुछ दिन पहले पढ़ी लेकिन लगा कि कितनी सही बात है हर वक्त चला जाता है, तो हम वक्त के साथ तालमेल बिठा कर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करें तो संतुष्टि मिलती है। अभी कुछ समय पहले मैं और दीपेश जी तारा में मासिक आय और व्यय का लेखा जोखा देख रहे थे तो लगा कि दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है थोड़ी चिंता हुई क्योंकि जब हम मुख्यतया दान पर निर्भर हैं तो यदि आय, व्यय से थोड़ी ही ज्यादा हो तो कभी विशेष परिस्थितियों में दान एकदम कम हो जाए तो समस्या आ सकती है। नए कुछ प्रयास कर रहे हैं कुछ कॉल सेन्टर वाली नई लड़कियाँ ली हैं कुछ दान इकट्ठा करने वाले लड़के भी लिए ताकि बूंद-बूंद से तारा का घड़ा भरा रहे। यह भी सोचा है कि गाजियाबाद के लोनी में आगे जो हॉस्पीटल खुलने जा रहा है उसके बाद नये प्रकल्प को प्रारम्भ करने में थोड़ा विराम लगाऐंगे क्योंकि हर हॉस्पीटल शुरू में ही 4-5 लाख रु. मासिक खर्च तो मांगता ही है।
खैर आप सब अपने परिवार के हैं तो कभी-कभी आंतरिक बातें भी आपसे शेयर कर लेते हैं उसी के तहत ये सब बता दिया क्योंकि सबसे मिलना संभव होता नहीं और मिलने पर भी इतनी बातें कहाँ हो पाती है।
मुझे मालूम है कि यह कहना बहुत आसान है कि ‘‘यह वक्त भी निकल जाएगा’’ लेकिन जब कोई उपाय न हो तो शायद सबसे अहम बात ही यही होती है। मैं भी प्रयासरत हूँ इस वाक्य को आत्मसात करने में....
आदर सहित...
कल्पना गोयल
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