जोश से भरे बच्चे
तारा संस्थान में हम एक सायंकालीन स्कूल चलाते हैं, जिसका नाम है ‘‘मस्ती की पाठशाला’’। इसका विचार मेरे मन में तब आया था जब मैंने कुछ बच्चों को सड़क पर कचरा बीनते देखा, छोटे-छोटे बच्चे कंधे पर बड़ा सा बोरा लिए गली गली कागज, गत्ते इकट्ठे कर रहे होते हैं। मैंने सोचा इनके लिए क्या करें, सायंकालीन स्कूल का विचार आया और लगा कि थोड़े से खर्च में कुछ बच्चों के जीवन में तो बदलाव ला ही सकते हैं।
संस्थान के पास ही एक कच्ची बस्ती में एक हाल किराए पर लिया और दो टीचर को नियुक्ति दी गई और ऐसे शुरू हुई ‘‘ मस्ती की पाठशाला’’। प्रश्न ये था कि बच्चे क्यों आयेंगे तो उन्हें लालच देने के लिए रोज छोटे-मोटे उपहार देने लगे जैसे कभी चिप्स, कभी बिस्कुट, कभी नमकीन, कभी उपमा और कभी पोहे आदि। समय के साथ बच्चों की संख्या बढ़ने लगी और अभी 40 से 50 बच्चे तक इस पाठशाला में आ जाते हैं। कुछ बच्चे तो सरकारी स्कूलों में जा रहे हैं और कुछ स्कूल जाते ही नहीं हैं। वैसे तो कुछ सोच समझ कर ‘‘मस्ती की पाठशाला’’ नाम नहीं रखा था लेकिन अभी यह नाम चरितार्थ हो गया है। यहाँ पर हमारा ये प्रयास है कि इन बच्चों को पढ़ाई में कोई परेशानी हो तो उसका निदान होवे, जो बच्चे स्कूल नहीं जा रहे उन्हें Basic Education देकर स्कूल से जोड़ा जाए। साथ ही इन बच्चों को नृत्य, एक्टिंग, सामान्य ज्ञान आदि भी सिखाया जाये जिससे इनका संपूर्ण विकास हो सके। गत दीपावली में इन बच्चों ने एक लघु नाटिका प्रस्तुत की तो छोटे-छोटे बच्चों का आत्मविश्वास और एक्टिंग देखकर दंग रह गए। एक बच्ची खुशबू ने तो अंधे होने की जो एक्टिंग की उसमें उसने आँखों को इस तरह कर लिया मानो वो वाकई नेत्रहीन हो। मुझे हमेशा एक खलिश थी कि मैं खुद समयाभाव के कारण इन बच्चों पर इतना ध्यान नहीं दे पा रही हूँ जितना देना चाहिए तो मैंने सोचा कि कभी-कभी इन बच्चों को ही अपने ऑफिस बुला लूँ। इसी के तहत मैंने एक दिन उन्हें अपने पास बुलाया। उनका जोश देखकर सच में मजा आ गया। इतनी छोटी उम्र में जो आत्मविश्वास उनमें था उससे यही लगा कि संघर्ष भी आत्मविश्वास को पैदा कर देता है। उनसे मिली और अगली बार के लिए उन्हें एक Task दे दिया कि भारत के राज्यों के नाम याद करके आना, मैं पूछूँगी।
अगले हफ्ते फिर वो बच्चे आए मैंने सोचा था कि एक दो बड़े बच्चों को छोड़कर क्या बतायेंगे राज्यों के नाम, लेकिन इन बच्चों ने मेरा भ्रम तोड़ दिया 5 साल के छोटे से तनिश ने आसाम से शुरू किया तो दनदनाते हुए लगभग सारे राज्य बता दिए। अधिकांश बच्चों को सारे राज्य याद थे मुझे ये पता था कि कई बच्चों को राज्य और देश में क्या फर्क है ये भी नहीं पता था लेकिन साथ ही ये भी पता था कि ये सब समझायेंगे तो जल्दी ही समझ जायेंगे। इस छोटे से प्रयोग ने मुझमें भी बहुत सारे उत्साह का संचार किया क्योंकि बच्चों के साथ काम करने में मजा आता है और इतने ऊर्जावान बच्चे यदि हों तो मजा दोगुना हो जाता है। अब मेरा प्रयास रहता है कि महीने में कम से कम दो बार तो इन बच्चों से मिलूँ और हर बार इन्हें कुछ Task दिया जाए इससे इन बच्चों को भी उत्साह रहता है और खेल-खेल में वो बहुत कुछ सीख जायेंगे।
जब भी इन बच्चों से मिलती हूँ तो धन्यवाद देती हूँ नांगलिया परिवार सूरत को जिन्होंने इस योजना में अपना सहयोग दिया और हमें एक अवसर दिया ऐसे बच्चों का जीवन सुधारने का जो सिर्फ इसलिए ज्ञान से वंचित रह जाते कि उनके माता-पिता के पास धन नहीं है और उन्हें ये भी नहीं पता कि शिक्षा उनके जीवन में कितना बड़ा बदलाव ला सकती है।
प्रतिभा कभी भी पैसे की मोहताज नहीं होती है अगर होती तो लैम्प पोस्ट के नीचे पढ़ने वाला एक गाँव का छोटा सा बच्चा अब्दुल कलाम भारत का मिसाइल मैन और राष्ट्रपति ना बन पाता। सिर्फ वे ही नहीं इतिहास और वर्तमान भरा पड़ा है ऐसी प्रतिभाओं से मुझे ये भी समझ है कि सारे बच्चे अब्दुल कलाम नहीं हो सकते क्योंकि प्रतिभा के साथ-साथ खुद की प्रतिभा की पहचान और उसको निखारने की लगन तो करोड़ों में 2-4 की होती है लेकिन हम ‘‘मस्ती की पाठशाला’’ में इन बच्चों की छुपी प्रतिभा को बाहर लाकर उसे निखारने का प्रयत्न भर कर रहे हैं।
‘‘मस्ती भरी पाठशाला’’ की सफलता का आंकलन अभी तुरंत होगा भी नहीं लेकिन ये जरूर है कि कुछ बच्चों का जीवन भी यदि सुधर गया तो पूरा परिवार और पीढ़ियाँ सुधर जायेंगी। वैसे भी सफलता असफलता की आशंका रखें तो कोई भी काम करना बेहद कठिन हो जाए सो बस हम और आप मिलकर ये काम कर रहे हैं पूरी ईमानदारी और साफ नियत से, बिना फल की आशा के....
आदर सहित...
कल्पना गोयल
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