माँ की आस....
आज से कोई 3-साढ़े 3 साल पहले मेरे पास एक युवक आया कि मैं यहाँ तारा नेत्रालय में आँख दिखाने आया हूँ और मुझे पता चला कि आप वृद्धाश्रम चला रहे हो तो हमारे मोहल्ले में एक बुजुर्ग महिला है जिनका कोई नहीं है तो आप उन्हें रखेंगे क्या? मैंने सहमति दी और जैसा कि अमूमन होता है उन बुजुर्ग महिला से मिली.... एकदम झुकी हुई कमर, सांवले चेहरे पर ढेर सारी झुर्रियां संफेद बाल, हाँ बिलकुल वैसी की जैसे आम बुजुर्ग होते हैं, लेकिन एक बात ‘‘बशीरन बाई’’ में विशेष थी आँखों में चमक। हाँ वो विशेष चमक थी जैसी बच्चों में होती है।
बशीरन बाई हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं। थोड़े समय में बशीरन बाई के बारे में जानकारी मिली कि वो अपनी बेटी ‘‘आमना’’ और उसके परिवार के साथ रहती थी। आस-पास के घरों में काम करती थी लेकिन एक दिन आमना अपने परिवार के साथ बशीरन बाई को छोड़कर चली गई, कहाँ गई किसी को पता नहीं। बशीरन बाई ने एक दो दिन इंतजार किया, फिर वो घर से बाहर बेटी को ढूँढ़ने निकली। बेटी तो थी ही नहीं उनका भतीजा उनसे मिला और वो ही आनन्द वृद्धाश्रम में छोड़ने आया था लेकिन हमें नहीं बताया कि उनका भतीजा है। बशीरन बाई अपने नए घर में रहने लगी लेकिन उन्हें ज्यादा समझ नहीं आ रहा था कि वो यहाँ क्यों हैं वैसे वो मानसिक तौर सही थीं, लेकिन उम्र थोड़े होश (ैमदेमे) कम कर देती है। उन्हें लगता था कि वे किसी अस्पताल में है और इलाज के बाद बेटी उन्हें ले जाएगी।
बेटी और उसके बच्चों के लिए प्यार इतना कि यहाँ जो भी फल मिले या कोई भी अच्छी चीज मिले बचा लेती थी। ईद पर एक बार उनके लिए नये कपड़े बनवाए, थोड़े दिन बाद देखा के पहन नहीं रहीं पूछा तो उनके साथ वालों ने बताया कि आमना को देगी। फल वगैरह एक सफाई वाले दिनेश को देती कि आमना के बच्चों तक पहुँचा देना। कभी-कभी बेटी की याद में ज्यादा भावुक हो जाती तो उन्हें दिलासा देने के लिए उनके मोहल्ले तक ले जाते ताकि मोहल्लेवालों के बीच जाकर अच्छा लगे और वो ठीक हो जाती। मैं जब भी लंच के लिए जाती वो मुझसे इतनी गर्मजोशी से मिलती कि मानो कोई बहुत अपना है उनसे मिलकर मुझे ये यकीन हो गया कि उम्र इन्सान की जिंदादिली कभी कम नहीं कर सकती है। आवाज उनकी इतनी बुलंद थी कि कभी किसी से लड़ाई करती तो तीन मंजिल नीचे हमें भी सुनाई देती। एक बार अपनी बेटी के लिए बहुत रो रही थी और रोते हुए कह रही थी कि मेरी बेटी मेरी वृद्धावस्था पेंशन की डायरी (पासबुक) ले गई और मेरी पायजेब भी ले गई। मुझे लगता है वो उन चीजों के लिए प्रेम कम और बेटी के लिए आक्रोश ज्यादा था। हम बेटी तो नहीं ला सकते थे लेकिन एक नकली पासबुक में एंट्री कर कुछ पैसे और एक पायजेब उन्हें दी कि थोड़ी तसल्ली आए।
कुछ लोग कितने अपने हो जाते हैं हमें भी नहीं पता होता है, मुझे जो कारण समझ आता है कि यदि निश्छल प्रेम हो तो बिना किसी रिश्ते के कोई भी अपना हो जाता है और इस प्रेम को जताने की जरूरत भी नहीं होती है। अपने आप पता चल जाता है, बशीरन बाई के प्रेम के तोहफों के रूप में मुझे भी कभी-कभी उनको मिले फल मिल जाते थे, जो वो सबसे छुपा कर देती थी।
कुछ दिनों पहले उनकी तबियत खराब हुई इतने सारे बुजुर्गों के बीच रहते हमें अब थोड़ा सा पता चल जाता है कि किसी का अंतिम समय आ गया है। बीमारी में बेटी की याद और ज्यादा परेशान उन्हें करती तो हमारे यहाँ कि कुछ लड़कियाँ कहती कि हम आमना है लेकिन....
वो फिर ठीक हो गई उसी गर्मजोशी से हमसे मिली तो दीपेश जी ने उनसे मजाक में कहा ‘‘कब्रिस्तान जाते जाते बच गए आप’’। अभी कुछ दिन पहले फोन आया कि बशीरन बाई नहीं रहीं। मेरे लिए एक ैवबा था लेकिन ऊपरवाले को जो मंजूर वही होता है। मुझे नहीं पता कि बशीरन बाई जो 3-साढ़े 3 साल हमारे साथ रही उन्हें क्या लगा कि ‘‘आनन्द वृद्धाश्रम’’ उनका घर है या वो ये समझती रही कि वो अस्पताल में हैं पर आमना का इंतजार हमेशा उन्हें था। एक तड़प थी जिसको लेकर वो चली गई। उनकी बेटी उनसे लड़कर चली जाती तो भी शायद अच्छा होता लेकिन बिना बताए ऐसे जाना माँ के लिए कितना दुःखद हो सकता है, इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकते हैं।
बशीरन बाई की आमना के लिए जो तड़प थी, आमना कभी समझ पाएँगी या नहीं, पता नहीं, पर माँ का दिल हमेशा बच्चों के लिए होता है। बशीरन बाई एक अधूरी आस लिए चली गई इसका दुःख मुझे हमेशा रहेगा।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति देगा, ऐसा विश्वास है।
कल्पना गोयल
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