मानव मन
ईश्वर की बनाई सबसे अद्भुत रचना है तो ‘‘मानव मन’’ यों तो पूरा शरीर ही अपने आप में अनूठा है लेकिन हजारों कोशिकाओं से मिलकर ये मस्तिष्क बना है उसने हमें प्रकृति की जीवन शृंखला में सबसे आगे खड़ा कर दिया है। ये मन या मस्तिष्क ही है जो सृजन या संहार दोनों की रचना करता है। अच्छे-से-अच्छा कम्प्यूटर वो नहीं कर सकता जो मन कर सकता है क्योंकि मन सोचता है और उस सोच की कोई सीमा नहीं है लेकिन बड़े से बड़ा सुपर कम्प्यूटर भी वहीं तक सोचता है जहाँ तक हम मनुष्यों ने उसे प्रोग्राम किया है।
फर्क यहीं से शुरू होता है मशीनों और इंसानों में संवेदनाएँ हैं, प्यार है, नफरत है, गुस्सा भी है। तारा संस्थान में हम संवेदनाओं से भरे हुए मनों को ज्यादा देखते हैं। आप सभी जो ‘‘तारा’’ को सहयोग करते हैं उनके दिमाग में कोई तो रसायन औरों से भिन्न होता होगा तभी तो वे अपने मेहनत के कमाए धन का एक अंश दान दे देते हैं। कोई तो ऐसी बात है जो उनमें संवेदनाएँ जगाती हैं। मैंने कितने ही ऐसे दानदाता देखे हैं जो दूसरों के दर्द से इतना द्रवित होते हैं कि वृद्धाश्रम विजिट के समय ही रोने लगते हैं उनसे देखा ही नहीं जाता है जबकि हमारा प्रयास हमेशा यह होता है कि वृद्धाश्रम के आवासियों से कोई भी कुरेद कर उनकी तकलीफ ना पूछे। मैं तो निःशब्द हो जाती हूँ उन संवेदनाओं के प्रति हालांकि मुझे भी कई बार रोना आ जाता है जब मैं बुजुर्गों की तकलीफ सुनती हूँ या फिर छोटी-छोटी बच्चियों, जो विधवा हो गई उनकी तकलीफ सुनती हूँ। ऐसी महिलाएँ भी आती हैं जिनके पति का निधन हुए कुछ महीने ही होते हैं लेकिन वे जिन्दगी की जंग लड़ने बाहर निकलती हैं घर छोड़कर चाहे तो तलाश नौकरी की हो या 1000 रु. महीना की गौरी योजना की पेंशन की। 1000 रु. कितना कीमती है ये आप किसी भी गौरी योजना की लाभांवित महिला से मिलें तो पता चल जाएगा।
ये मन कितना विचित्र है कि वो माता-पिता जिन्होंने अपने बच्चों को पाल पोस के बड़ा किया, बच्चों के तिरस्कार से आहत हो जाते हैं क्योंकि वे संवेदना से भरे हैं लेकिन यही मन मजबूत भी इतना है कि वे उस घर को ही छोड़ देते हैं जो उन्होंने बनाया और बच्चों के नाम कर दिया। तिरस्कार से बेहतर उन्हें सड़क पर जीवन बिताना बेहतर लगता है। इसी तरह के मजबूत मन वाली हमारी गौरी योजना से लाभान्वित विधवा महिलाएँ हैं जो अपने आप को झोंक कर बच्चों को पढ़ा रही हैं हमारे समाज में खासकर लोअर मिडिल या लोअर क्लास में अकेली महिलाओं के लिए जिन्दगी कितनी मुश्किल है लेकिन वे बस मन कड़ा किए लगातार संघर्ष कर रही हैं।
हमारी संस्कृति में तो दान एक परंपरा रही है। बहुत से लोग ऐसे भी देखें हैं जो दान देने का भी बहाना ढूंढ़ते हैं। तारा संस्थान जो भी काम कर रही है उसमें अधिक संख्या में लोगों का थोड़ा-थोड़ा दान आता है लेकिन उससे भी कितना काम हो रहा है। मुट्ठी भर लोगों के मन में जो रसायन काम कर रहा है वो यदि बहुत सारे लोगों में काम करें तो सोचिए कि कितने लोगों की तकलीफें कम हो जाएँगी। मुझे लगता है कि वह रसायन होगा तो सबके मस्तिष्क में लेकिन कहीं लुप्त प्रायः होगा, जरूरत है उसे जगाने की, हम तो प्रयास करते ही हैं आप भी अपने आस-पास के एक दो लोगों में उसे जगा सकते हैं।
कोशिश करके देखें, बहुत आनन्द आएगा।
सादर...
कल्पना गोयल
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