मेहमान (हम)
एक बार रुटीन में, मैं और कल्पना जी आनन्द वृद्धाश्रम में गए अभी 22 अप्रैल, 2018 को नये भवन के उद्घाटन के बाद काफी बुजुर्ग वृद्धाश्रम में आ रहे हैं रहने को तो अकसर वहाँ जाना हो ही जाता है। उस दिन हमें वहाँ के दो तीन बुजुर्गों ने न्योता दिया कि कल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है और आपको और कल्पना जी को सपरिवार आना है जरूर से रात 8 बजे से मध्यरात्रि तक श्री कृष्ण जन्मोत्सव मनाएँगे। एक सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि ऐसा पहली बार हो रहा था कि बुजुर्ग लोग हमें निमंत्रित कर रहे थे, हमनें हाँ कह दी।
जैसे ही वृद्धाश्रम में प्रविष्ट हुआ दरवाजे के बाहर ही गुब्बारे और केले के पत्रों की सजावट थी ऊपर मंदिर में पहुँचा तो सारा माहौल संगीतमय था। बुजुर्गों ने अपने संगीत टीचरों को बुला रखा था हारमोनियम, ढोलक, मंजीरों के बीच बुजुर्गों का भजन गाना और नाचना सच में अद्भुत अनुभव था। प्रसाद में फल, पंजीरी चरणामृत सब कुछ मंदिर में भी गुब्बारों की सजावट भगवान जी का शृंगार सब बेहद सुंदर था। भजन नाच गाने में समय कैसे निकला पता ही नहीं चला कि रात के 12 बजे गए।
प्रसाद वगैरह ले करके जब वापस घर जा रहा था तो मन में बहुत बड़ा सुकून था जो कि वृद्धाश्रम में आकर पहली बार लगा था। इससे पहले जब भी मैं वृद्धाश्रम जाता तो रहने वाले बुजुर्गों में पारिवारिक भावना ढूँढता था, एक ऐसी जगह जिसे लोग अपना घर मानकर रहे और साथ में रहने वालों को अपना मित्र या सखा से ज्यादा समझें एक परिवार की तरह। मेरी सोच बिलकुल ऐसी नहीं थी कि वृद्धाश्रम में रहने वालों में प्रेम अनिवार्य रूप से हो, हकीकत की दुनिया में परिवारों में भी प्रेम अनिवार्य नहीं होता तो अलग अलग जगहों, परिवारों, जीवन स्तरों के लोगों में जबरदस्ती प्यार पैदा करना संभव ही नहीं है। हाँ, लेकिन मेरी सोच में ये जरूर था कि आनन्द वृद्धाश्रम में रहने वाले बुजुर्ग एक दूसरे के सुख दुःख में काम आएँ। किसी भी मजबूरी में वो मिले हों तो भी अपने साथ रहने वालों को अपना मानें।
लेकिन हकीकत में ऐसा था नहीं, मित्रता थी तो कुछ-कुछ छोटे समूहों में कोई दो एक ही राज्य के मित्र थे तो कोई दो चार किसी अन्य कारण से मित्र थे। सुख दुःख में भी काम आते थे पर जिस उमंग से आना चाहिए वो थोड़ा मिसिंग था। जबसे नये वृद्धाश्रम में आए हैं और बुजुर्गों की संख्या बढ़ने लगी और संगीत कक्षा होने लगी मुझे थोड़ा बदलाव लगने लगा और इस जन्माष्टमी ने तो मेरी उम्मीदों को पर लगा दिए हैं। जिस तरह से सबने मिल कर यह उत्सव मनाया बिलकुल ऐसा लगा कि मानो एक परिवार में उत्सव हो सब इतने खुश थे और ये सब स्वस्फूर्त था, इसमें मेरी या कल्पना जी की पहल बिलकुल नहीं थी कोई मजबूरी या दबाव नहीं था कि यह त्योहार मनाया जाये, बस दिल की उमंग थी जो दिख रही थी। सबसे बड़ी बात जो लगी वो ये थी कि हमें वृद्धाश्रम आवासियों ने निमंत्रित किया था जैसे मेहमानों को बुलाते हैं कि हमारे घर में उत्सव है आप जरूर आना।
सच में उनका घर ही तो है।
दीपेश मित्तल
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