‘‘मेरा पीहर - मेरी बेटी’’
थोड़ा अजीब सा टाइटल है ना लेकिन इस अजीब से टाइटल ने कुछ बेटियों के और हमारे लिए एक दिन यादगार बना दिया। दरअसल कुछ दिनों पहले कल्पना जी को ये ख्याल आया कि गर्मी की छुट्टियाँ चल रही हैं और सामान्यतः लड़कियाँ बच्चों की छुट्टियों में पीहर ले जाती हैं माता-पिता के पास, बच्चे नाना-नानी के पास। वो जब वापस आती हैं तो उन्हें नाना-नानी कुछ तोहफे और मिठाई देते हैं। मेरी पत्नी भी पीहर अजमेर जाती है क्योंकि उसे वो निश्चिंतता लुभाती है जो माँ के पास जाने पर मिलती है। कभी भी उठो कहीं भी चले जाओ बच्चों को नानी संभाल लेगी। शायद मैं उतने अच्छे से वर्णन नहीं कर पा रहा लेकिन जो भी महिलाएँ हैं उन्हें पता है पीहर जाने की मौज का। कल्पना जी भी उदयपुर में रहते हुए भी गर्मी की छुट्टियों में अपनी मम्मी के पास 4-5 दिन के लिए जाती रही हैं तो उन्हें एक विचार आया कि हमारी गौरी योजना से लाभांवित बहुत सी महिलाएँ हैं जो पीहर नहीं जा पाती हैं या फिर उन्हें वो निशि्ंचतता नहीं मिल पाती है क्योंकि उनके लिए अपनी और बच्चों की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरा करना ही ध्येय रह जाता है। तो क्यों ना इन महिलाएँ को पीहर के एक दिन का सुख तो देवें और इसके लिए आनन्द वृद्धाश्रम से बेहतर जगह क्या होगी जहाँ बेटियों को माता-पिता, बच्चों को नाना-नानी और वृद्धजनों को भी तो बेटियाँ और दोहिते-दोहिति मिल जायेंगे, बस यही विचार को नाम दिया गया ‘‘मेरा पीहर - मेरी बेटी’’।
इस विचार पर काम शुरू हुआ संगीता जी और राव सा. को क्रियान्वयन की जिम्मेदारी दी गई। तारीख निश्चित की गई तोहफे में दो साड़ियाँ देना, एक कंबल, छोटी सी नकद राशि और बच्चों के लिए एक खिलौना देना तय किया गया। आनन्द वृद्धाश्रम की पौद्दार आंटी ने देने के लिए बेसन की चक्की के एक-एक किलो के डिब्बे बनवाएं।
वो दिन आ गया जब बेटियाँ पीहर आई; आते ही नाश्ता हुआ फिर माता-पिता-बेटियों-बच्चों ने मिलकर कुछ गेम खेले उसके बाद भोजन हुआ भोजन के बाद थोड़ी अनौपचारिक बातचीत उसके बाद कुछ भजन, कविता, गाना, नाचना हुआ फिर शाम को चाय व फलाहार के बाद तोहफों के साथ बेटियों वापस विदा हुई। जब वापस जाने लगी तो कई बेटियों की आँख में आँसू थे तो कुछ माता-पिता की अपने भावों को नहीं संभाल पाए, सच मानिये हमारी सोच से कहीं ज्यादा प्यारा ये दिन था। कितनी बेटियाँ ऐसी थी, जिन्होंने ये कहा कि हम तो भूल ही गए थे कि पीहर जाना कैसा होता है, कुछ तो सालों से पीहर गई ही नहीं थी। बच्चे सोफे पर से कूद रहे थे तो लगा कि हमारी सोच सफल रही क्योंकि ये निशि्ंचतता देना ही तो लक्ष्य था। एक दिन वैसे तो कुछ नहीं होता पर यह एहसास विशेष होता है कि आप अपनों के साथ हो और उस एक दिन आपको कुछ नहीं करना है, खान-नाश्ता कुछ भी नहीं, जीवन के संघर्षों में फंसी इन बच्चियों को हमने खुशी का एक दिन भी दे दिया तो ये हमारा सौभाग्य था और हमने अब ये भी निश्चय किया कि समय-समय पर ऐसा एक दिन इनको देते रहेंगे उसके लिए मई जून का इंतजार नहीं करेंगे क्योंकि छुट्टियाँ तो दीपावली और सर्दियों की भी होती ना ।
हमारी कोई भी योजना आपके सहयोग के बिना असंभव है और आप सब जो तारा से जुड़े हैं यही हमारी ताकत है तभी तो हम कुछ सोचते हैं और उसे पूरा कर लेते हैं। यह खुशी जो इन बच्चियों को मिली उसका कारण आप सब ही हैं सो इसे बाँट लिया... और बाँटने से तो ये बढ़ भी गई।
आदर सहित...
दीपेश मित्तल
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