साझेदारी
अमूमन साझेदारी जब होती है तो दो यो अधिक या बहुत से लोग मिलते हैं फिर वो कुछ व्यवसाय करते हैं मकसद होता है इस साझेदारी से कुछ लाभ कमाना। साझेदारी अगर सही हो तो Business में बहुत सा लाभ हो जाता है। लेकिन, यदि एक भी साझेदार सही ना हो तो न सिर्फ Business चौपट हो जाता है वरन साझेदारी टूटने से दोस्ती या रिश्ते तक खत्म हो जाते हैं। हमारे आस-पास या दूर भी ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे।
2011 में एक ऐसी साझेदारी का जन्म हुआ जिसमें बस खुशियाँ मुनाफे में मिल रही हैं और ये मुनाफा ऐसा है जो बढ़ता ही जा रहा है। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ ‘‘तारा’’ की। तारा संस्थान में आप, हम और हमारे लाभार्थी सभी साझेदार ही तो हैं और लाभ सभी को है, इस भागीदारी से। आप सभी जो तारांशु के माध्यम से हमारे भावों को पढ़ते हैं, दान देते हैं और जहाँ तक मैं समझता हूँ इस दान के पीछे लोक या परलोक सिद्ध करना तो बहुत ही कम लोगों का मकसद होता है। असल तो वो भावना होती है जो मन में जागृत होती है, उनके लिए, जिन्हें ईश्वर ने उतना समर्थ नहीं बनाया। आप इस भागीदारी की पहली कड़ी हैं क्यांकि यदि आप दान न दें तो ये सारे काम कैसे हों इस भागीदारी के बदले में आप पाते क्या हैं? मुझे लगता है कि ‘‘देने का सुख’’ जो है, वही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जीवन के बाद के सुख-दुःख या स्वर्ग-नरक तो मुझे नहीं लगता की कोई जान पाएगा। जितने भी ज्ञानी लोग थे चाहे, किसी भी धर्म के हो, उन्होंने दान की अवधारणा शायद रची ही इसलिए कि उन्हें पता था कि परोपकार में सुख है लेकिन उन्हें यह भी पता था कि मनुष्य को शायद खुद का स्वार्थ बताया जाए तो ही वो परोपकार की राह पर जाएगा। वैसे जो नई पीढ़ी है वो बिना स्वार्थ के परोपकार के पथ पर अग्रसर है तभी तो दुनिया के कई अरबपति जैसे श्री अजीम प्रेमजी (विप्रो कम्पनी के चेयरमैन), श्री वारेन बफे आदि अपनी 90 प्रतिशत से अधिक सम्पत्ति दान कर चुके हैं।
इस भागीदारी की अगली कड़ी में तारा संस्थान है और जब मैं तारा संस्थान की बात करती हूँ तो हम सभी लोग जो इसके रोजमर्रा के काम से जुड़े हैं, वो भी शामिल हैं। हमारे डॉक्टर्स, मैनजमेंट का स्टाफ या फिर चाहे सफाई वाली बाई हों। तारा संस्थान आप लोगों को यकीन दिलाती है कि आप जो दे रहे हैं उसका सदुपयोग होगा। आपके द्वारा प्रदान किए गए धन से ‘‘तारा’’ आपके परोपकार के स्वप्न को साकार करती है और ये आपका और हमारा विश्वास का जो रिश्ता है उससे बड़ी कोई साझेदारी हो ही नहीं सकती है। हम हमेशा दिल से यही प्रयास करते हैं कि यह विश्वास बना रहे। इस बात की परवाह किए बिना कि आपने कितना दिया या कितनी बार दिया। हमारी कोशिश ये रहती है कि छोटे-छोटे दानदाताओं का भरोसा भी कभी ना टूटे क्योंकि हम जानते हैं कि दान भावना का विषय है और हर वो भाव महान है जो किसी और के लिए सोचे।
साझेदारी की अगली कड़ी में हमारे लाभार्थी हैं क्योंकि वो सब ना होते तो हम सब क्या करते? वो खुशियों का कारण हैं उन लोगों का जो उनके लिए दान देकर खुद को सौभाग्यशाली मानते हैं। हमारे सभी लाभार्थी चाहे वो आँखों की ज्योति पा रहे, चाहे वृद्धाश्रम में रह रहे, तृप्ति या गौरी और स्कूल के बच्चे; वो बस सुख बाँट रहे हैं। दानदाता तो संतोष प्राप्त करते ही हैं लेकिन तारा में जो भी काम कर रहे हैं उन सभी लोगों को उन्हें देखकर उनके लिए कुछ करके खुशी ही मिलती है। साथ ही तारा संस्थान के माध्यम से जिन्हें रोजगार मिला है उनका घर भी तो चल रहा है। संस्थान में जो भी काम कर रहे हैं उनमें डॉक्टर्स और कुछ तकनीफी स्टॉफ को छोड़ दें तो बाकी सभी लोग ऐसे हैं जो शायद उतना अच्छा ना कर पाते, खासकर हमारे कॉल सेंटर की बहुत सी महिलाएँ जो सिर्फ इसलिए घर से निकली कि उन्हें जरूरत थी, जिन्दगी की मूल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ पैसों की। उनके पास न कोई डिग्री थी ना अनुभव लेकिन आप जो दे रहे हैं उससे हम उन्हें बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन थोड़ा सा जो मानदेय देते हैं उससे उनके घर चलाने का बोझ थोड़ा कम हो जाता है। एक तरह से आप सीधा लाभ लाभार्थियों को तो दे रहे हैं साथ ही कुछ लोगों को रोजगार भी आप के सहयोग से मिल जाता है।
‘साथी हाथ बढ़ाना’ वाला जो गाना है वो हम सबकी ‘‘साझेदारी’’ को एकदम सही बयान करता है। जब इतने लोग मिलकर कुछ करते हैं तो कोई थकता नहीं और रुकता भी नहीं है।
इस भागीदारी में सबको ‘‘लाभ’’ भी बहुत ‘‘शुभ’’ होता है।
कल्पना गोयल
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