संतुष्टि
जून, 2011 से तारा संस्थान ने पूर्ण रूपेण कार्य करना प्रारम्भ किया था उसके पहले कुछ कैम्प कुछ लोगों की मदद से करते रहे थे लेकिन वो बहुत थोड़ा सा काम था। तारा नेत्रालय, उदयपुर अक्टूबर, 2011 में प्रारम्भ हुआ और उसके बाद जब ढेर सारे कैम्प होने लगे तो उन कैम्पों में बहुत से बुजुर्ग ऐसे आते थे जिनकी आँख तो तारा ने बचा ली पर उनके जीवन में आधारभूत जरूरतें (रोटी, कपड़ा, मकान) भी पूरी नहीं हो रही थी। इसके समाधान में ही ‘‘आनन्द वृद्धाश्रम’’ का जन्म हुआ। कैम्पों में से कुछ बुजुर्ग वृद्धाश्रम में रहने आए भी लेकिन उन्हें शहर रास नहीं आया भले ही लाख सुविधाएँ क्यों न हो। इस प्रश्न के उत्तर में तृप्ति का जन्म हुआ, वे हमारे पास न आएँ तो क्या हम तो उनके पास जा ही सकते हैं, कहते हैं जहाँ चाह वहाँ राह, हम चाहते थे कि ऐसे बुजुर्गों के लिए कुछ करें जो नितांत अकेले हों, असहाय हों, आय का कोई जरिया ना हो तो उन्हें उनके घर पर मासिक राशन देने लगे। 10-20 बुजुर्गों से शुरू हुई ये योजना अभी लगभग 233 बुजुर्गों का पेट भर रही है। इनमें से बहुत थोड़े लोग हैं जिनसे व्यक्तिशः मिलना हुआ लेकिन बहुत सारे बुजुर्गों के वीडियो देखे हैं जो तारा के टी.वी. प्रोग्राम के लिए बनते हैं और ऐसा लगता है कि संतुष्टि का भाव है उन लोगों में। इसलिए ही इस योजना का नाम तृप्ति रखा गया।
हमारे यहाँ शादी एक भव्य आयोजन होता है और जो समर्थ हैं तो अच्छी-से-अच्छी शादी करना चाहते हैं लेकिन अकसर इस तरह के आयोजनों में भोजन की जो दुर्दशा होती है वो कल्पना से परे है, बच्चे पूरी पूरी प्लेट भरकर थोड़ा सा. खाते हैं फिर फेंक देते हैं और नई प्लेट उठा लेते हैं उन्हें नहीं समझ पर जिन्हें समझ है वो तो समझा सकते हैं? इसके अलावा कई बार इतना खाना बच जाता है कि उसे फेंकना पड़ता है चुंकि हम तृप्ति योजना चला रहे हैं इसलिए हमें ज्यादा पता चलता है उस खाने की कीमत। एक तरफ हजारों लोग दो वक्त के पौष्टिक खाने को मोहताज हैं और दूसरी तरफ इतना सारा भोजन व्यर्थ हो रहा है।
यही विडंबना है, चीजें बेहतर हो रही हैं जीवन स्तर भी सुधर रहा है लेकिन वंचित वर्ग अभी भी बहुत बड़ा है। सामर्थ्य है तो शादी अच्छे से करें इसमें कोई गलत नहीं है लेकिन हम सभी अपने बच्चों को ये तो सिखा ही सकते हैं कि भोजन जूठा ना डालें। जोधपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में जब हम पढ़ते थे और हॉस्टल का खाना अच्छा नहीं लगता था तो जैन भोजनशाला में जाते थे हालांकि मैं जैन नहीं था लेकिन अपने जैन मित्रों के साथ चले जाते थे। वहाँ का खाना तो घर जैसा होता ही था लेकिन वहाँ एक वाक्य लिखा होता था ‘‘थाली धोकर पीने से ईश्वर प्राप्त होते हैं’’ ऐसी शिक्षा को यदि उतार लिया जाये तो ‘‘तृप्ति’ जैसी कोई योजना की आवश्यकता ही ना होवे। उम्मीद करते हैं कि ऐसा कभी न कभी होगा ही कि हमारे देश में भी रोटी-कपड़ा-मकान की जद्दोजहद ना रहे।
इस बार तारांशु में हम लेकर आयें हैं तृप्ति योजना के कुछ लाभार्थियों को जिनकी जिन्दगी में आप बदलाव लेकर आए हैं और ये जानने की कोशिश की है कि ‘‘तृप्ति’’ के बिना और ‘‘तृप्ति’’ के बाद इनके जीवन में क्या बदलाव आया है। हमें विश्वास है कि आपको देखकर अच्छा लगेगा कि आपका छोटा-छोटा सहयोग अनके जीवन में कितना अहम् किरदार निभा रहा है।
आपकी बूँद-बूँद से भरा घड़ा बहुत से लोगों को तो तृप्त कर रहा है।
आदर सहित...
दीपेश मित्तल
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