सुंदर सी दुनिया
तारांशु एक ऐसा माध्यम है जिससे हम आपसे रू-बरू हो पाते हैं, हमारे विचार आप तक पहुँचाने का सबसे अच्छा तरीका है यह... और हाँ आप भी तो ‘‘तारांशु’’ पढ़कर हमें पत्र लिखते हैं, लेखन में अच्छे शब्दों से ज्यादा महत्त्व भावों का है और आपके भाव हमारे दिल को छू जाते हैं। आपका प्यार, आत्मीयता जो इन पत्रों में मिलती है उसका कोई मोल ही नहीं है। कई बार तो आप लोग हमें इतना सम्मान देते हैं कि क्या कहें, जबकि हम उम्र में अनुभव में सबमें आपसे काफी नीचे होते हैं। तारा संस्थान से जुड़ने का सर्वाधिक सुखद पहलू ही मैं तो ये मानता हूँ कि आप जैसे दिलवाले लोगों से मिलना या बात करना। हम तो ईश्वर से बस यही प्रार्थना करते हैं कि आपके इस प्यार को पाने के काबिल बने रहें और आप भी हम पर अपना स्नेह बनाये रखें।
ये बात अच्छी तरह समझते हैं कि ‘‘तारा’’ के लिए दान मांगते समय कभी-कभी आपको फोन आने से परेशानी भी होती होगी लेकिन आप लोगों ने इस परेशानी को भी गरिमापूर्वक सहन किया है तभी तो हमसे रिश्ता बनाए रखे हैं और इस सहनशीलता का एक ही कारण है जो मुझे समझ आता है कि आप ये सोचकर माफ कर देते होंगे कि एक अच्छा काम हो रहा है। ईश्वर जब अच्छा काम कराता है तो बहुत से अच्छे लोगों को मिला देता है और तारा में भी तो एक अच्छा सा परिवार बना दिया। मुझे लगता है कि आपके और हमारे जैसे लोगों का भाग्य विशेष चुनकर लिखा गया होगा क्योंकि परहित का सुख सबकी किस्मत में कहाँ होता है।
कभी-कभी लिखने बैठते हैं तो हृदय के उद्गार लिखने में आ जाते हैं, हमारे प्यारे बाउजी (आदरणीय डॉ. कैलाश जी मानव) से जब इस तरह की बात होती हैं तो वे यही कहते हैं कि जीवन की मूल बातें तो ये ही है बाकी सब काम की बातें सैकेंडरी हैं।
चलिए, अब कुछ सैकेंडरी बातें भी कर लेते हैं। अकसर तारांशु में लिखते हैं तो वृद्धाश्रम की बातें ज्यादा हो जाती है, ये काम ही ऐसा है जो दर्द से भरा है, बातें तो इस बार भी बहुत हैं लेकिन इस बार हम तारा नेत्रालयों की बात करेंगे क्योंकि अभी अक्टूबर का महीना गया है और तारा नेत्रालय - उदयपुर, दिल्ली और मुम्बई क्रमशः अक्टूबर 2011, 2012, 2013 और फरीदबाद सितम्बर 2016 में प्रारंभ हुए थे जिन सब में और कुछ बाहर के शिविरों में मिलाकर लगभग 10,000 मोतियाबिन्द के ऑपरेशन प्रतिवर्ष निःशुल्क हो रहे हैं। लोग हमसे पूछते हैं कि ‘तारा’ नाम क्या इसलिए रखा की आँखों का काम करना था लेकिन मात्र संयोग है कि नाम तारा पहले रखा था और आँखों का काम बाद में किया। इसी तरह सितम्बर या अक्टूबर में हॉस्पीटल का खुलना भी संयोग मात्र है बस दशहरे का दिन शुभ होता है और नारायण सेवा संस्थान भी दशहरे को प्रारम्भ हुई थी सो पहला तारा नेत्रालय, उदयपुर दशहरे के दिन प्रारम्भ हुआ और आगे भी दशहरे को होते चले गए।
हॉस्पीटल का खुलना इतनी बड़ी घटना नहीं है लेकिन खुलकर निरंतर चलना अच्छा लक्षण है क्योंकि ये दो बातों का सूचक है कि मरीजों का हम पर विश्वास है और हमारे दानदाताओं का भी विश्वास कायम है। तारा नेत्रालयों के माध्यम से जो काम हो रहा है उसकी आवश्यकता और महत्त्व का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि भारत में अभी भी लाखों बुजुर्ग केवल इसलिए आँखों की रोशनी खो देते हैं कि वे मोतियाबिन्द का ऑपरेशन नहीं करवा पाते। इस ऑपरेशन को नहीं करवा पाने का कारण है अज्ञानता और गरीबी। तारा के अलावा बहुत से केन्द्र हैं जहाँ इस तरह का ऑपरेशन होता है लेकिन पूर्णतया निःशुल्क केन्द्र कम ही हैं।
तारा नेत्रालय एक ऐसी निश्चिंतता देते हैं कि रोगी दूर-दूर से आते हैं और अपना ऑपरेशन कराते हैं उदयपुर में सुदूर आदिवासी क्षेत्रों से, मुम्बई में मैंने पाया कि वहाँ पर काम कर रहे बिहार और उत्तर प्रदेश के बहुत से लोग अपने गाँवों से माता-पिता को बुला बुलाकर उनका ऑपरेशन कराते हैं इसी तरह दिल्ली और फरीदाबाद में, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली एन.सी.आर. तक लोग आते हैं।
एक छोटा सा प्रयास कितने बड़े क्षेत्र के लोगों को राहत दे देता है, हमारे दानदाता भी तो ऐसे ही हैं जो प्रदेश, भाषा, धर्म, जाति की सीमाओं से परे सहयोग देते हैं उनके लिए जिन्हें तो जानते भी नहीं।
इसे ही तो कहते हैं सुंदर सी दुनिया....
आदर सहित....
दीपेश मित्तल
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