उड़ी उड़ी रे पतंग...
1 जनवरी की सुबह मैं घर से निकला तो गाड़ी सीधे ‘‘तारा’’के नये वृद्धाश्रम भवन की तरफ मोड़ ली क्योंकि मुझे न्योता था कि आज आनन्द वृद्धाश्रम की छत पर मकर संक्रांति के अवसर पर पतंगबाजी होगी, थोड़ा पशोपेश था क्योंकि कल्पना जी अपने भैया के पास युगाण्डा गए हुए थे तो ऑफिस में काम होगा और ये भी सोच थी कि बुजुर्ग लोग क्या पतंग उड़ाऐंगे इस उम्र में, लेकिन न्योता था सो आनन्द वृद्धाश्रम पहुँच गया। वृद्धाश्रम भवन का ग्राउण्ड फ्लोर जो डाइनिंग हॉल है आमतौर पर वहाँ चहल-पहल रहती है वो लगभग खाली था। चिमन भाई मुस्कराते हुए मिले और इशारा कर बताया कि सब छत पर गए हैं। मैं भी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए चौथे माले तक पहुँचा क्योंकि मुझे मेरे हृदय रोग विशेषज्ञ भैया ने बोला था कि दिल को स्वस्थ रखना है तो लिफ्ट का इस्तेमाल मत करो तो अपने स्वार्थ के लिए थोड़ी तकलीफ ही सही, छत पर जो नज़ारा था वो मजेदार था। एक पतंग तो इतनी दूर उड़ रही थी जितनी मैंने भी बचपन में नहीं उड़ाई थी जबकि मैं भी थोड़ी बहुत पतंगबाजी कर लेता था। सक्सेना सा. के हाथ में डोर थी उस पतंग की, एकदम माहिर पतंगबाज जैसे पतंग उड़ा रहे थे और एक और पतंग द्वारका प्रसाद जी उड़ा रहे थे। मांझे की जगह सद्दा (सादा डोरा) ही था क्योंकि हाथ कटने का डर रहता है लेकिन क्या फर्क पड़ता है उनको कौनसा पेच लड़ाना था। उस दिन जो एक डेढ़ घंटा मैंने आनन्द वृद्धाश्रम की छत पर बिताया वो अविस्मरणीय है। सुमित्रा आंटी पतंग को छुट्टी दे रही थी तो अग्रवाल अंकल-आंटी ने भी उड़ती पतंग की डोर हाथ में ली उन्होंने तो जीवन में पहली बार पतंग उड़ाई थी। किचन में व्यस्त रहने वाली पौद्दार आंटी भी पतंग की डोर थाम कर इतनी खुश थी कि बता नहीं सकते और जब अनाड़ी कालूराम जी जैन ने पतंग दूसरे घर में अटका दी तो सब उन्हें कोसने लगे। कलावती आंटी जिनके पैर में अभी लगी थी वो भी छत पर कुर्सी पर बैठे बैठे ही गाने लगी ‘‘उड़ी उड़ी रे पतंग’’ और दिल्ली वाली आंटी श्रीमती सुनीता शर्मा को जब उड़ती पतंग की डोर थमाई तो वो तो नाच नाच के यही गाना गाने लगी। ऐसा लगा ही नहीं कि ये वृद्ध लोग हैं ये सब तो छोटे छोटे बच्चों जैसे हो जाते है और वृद्धाश्रम का संचालन करते हुए इन 6 सालों में ये पक्के से पता चल गया कि उम्र केवल आदमी के शरीर को बूढ़ा करती है मन हमेशा ही सभी भावों वाला होता है बस अनुभव है जो थोड़ा ठहराव ला देता है वरना मन चंचल, शैतान, जिद्दी आदि सभी भावों वाला होता है तभी तो हमारे वृद्धाश्रम में बदमाशियाँ, लड़ाइयाँ, जिद्दें, बेवकूफियाँ सब कुछ होता है और मैं, कल्पना जी या राजेश जी (वृद्धाश्रम के मैनेजर) कभी हॉस्टल के वार्डन या क्लास के मॉनीटर की भूमिका निभाते हैं। अपने से डेढ़ी उम्र या दुगनी उम्र के बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाना भी कभी-कभी रोचक या कभी परेशान करने वाला होता है लेकिन अब ये हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी है। लेकिन इन बुजुर्गों का बचपना देखकर जो आत्त्मिक संतोष और खुशी मिलती है उसके आगे सारी परेशानियाँ गौण हैं। तारा में हमारा ये प्रयास रहता है कि कुछ-कुछ प्लानिंग वृद्धाश्रम के लिए करते रहें जिससे कि यहाँ के रहने वाले जिन्दादिली से अपने जीवन के आखिरी समय को व्यतीत करते रहें।
आदर सहित....
दीपेश मित्तल
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